Sunday, August 19, 2007

छुपे-ढके से भी बटोरो अनुभव

इंसान हो या वातावरण, जो दिखता है उससे ज्‍यादा अनदिखा ही रहता है। अच्‍छा लेखक दिख रहे से ज्‍यादा को देख सकने में सक्षम होता है, ऐसा इसलिए होता है कि वह सामने दिख रहे से ज्‍यादा देखने में इच्‍छेक होता है। जो दिखता है वह तो आईसबर्ग की चोटी भर है इसलिए हमें सामने की चमक दमक से परे जाकर अनुभव बटोरने में उत्‍साह दिखाना चाहिए-

इसी उद्देश्‍य से आपको कल का दूसरा ऐसाइनमेंट दिया गया था। यानि-

कॉलेज की इमारत के पीछे सामान्‍यत- न दिखने वाले हिस्‍सों का समूह में भ्रमण करना तथा इस अनुभव का संक्षेप में वर्णन करना या स्‍क्रेपबुक में एंट्री करना।

हम यह गतिविधि भौतिक जगत से शुरू कर रहे हैं, यानि हम इमारत, पुस्‍तकालय की शेल्फों, कैंटीन के पीछे या चारदीवारी के साथ साथ घूमकर छपे-ढके को देखने को कह रहे हैं पर असल उद्देश्‍य आ लोगों में यह रूचि पैदा करना है कि आप अपने अनुभवों को छपे-ढके से बटोरने की ओर उन्‍मुख हों। ध्‍यान दें कि अंतत: आप मनुष्‍य के भी छुपे-ढके पक्ष में झांकने का साहस व इच्‍छा पाएंगे तथा यही तो लेखक को लेखक बनाने वाली बात है।

अभी फीडबैक प्राप्‍त नहीं हुआ है, मैं प्रतीक्षा में हूँ।

1 comment:

ALOK PURANIK said...

बिलकुल सही है मसिजीवीजी।
अभी एक विश्वविद्यालय की कोर्स कमेटी में था मैं, पत्रकारिता के कोर्स के लिए मैंने एक पेपर सजेस्ट किया -आवारागर्दी। मतलब यह व्यंग्य नहीं है। सच्ची में। मैंने तर्क दिया कि पत्रकारिता का काम जीवन से जुड़ा है। जीवन को किताबों से समझना जरुरी है। पर सारा जीवन स्ट्रक्चर्ड तरीके से समझ में नहीं आ सकता। अनस्ट्रक्चर्ड टीचिंग का किसी और विषय के लिए महत्व हो या न हो, पर पत्रकारिता के लिए तो है। बच्चे निकल जायें मुंह उठाये चांदनी चौक या जामा मस्जिद या कनाट प्लेस, या कहीं और और सिर्फ आबजर्व करें। सुबह से शाम तक आबजर्व करें। किते ऐसे तजुरबें मिलेंगे, जो पत्रकारिता की कोई किताब नहीं समझा सकता है। आवारागर्दी को अभी मैं किसी पत्रकारिता कोर्स में शामिल नहीं करवा पाया हूं। पर एक दिन यह जरुर होगा। हर अनुभव,नया अनुभव अपने आप में कुछ लेकर आता है। इंसान तो छोड़ो, इमारतों तक का व्यक्तित्व अपने आप में बहुत सिखाता है। आप बढ़िया काम कर रहे हैं, शुभकामनाएं। मेरी अगड़म-बगड़म भूमिका कभी उसमें बनती हो, मैं हमेशा हाजिर हूं।